त्रेतायुग समुध्दारक मुनिन्द्रनाम साहब द्वारा अयोध्या के मधुकर ब्राह्मण राम
त्रेतायुग समुध्दारक मुनिन्द्रनाम साहब द्वारा अयोध्या के मधुकर ब्राह्मण रामचंद्र जी व हनुमान जी को उपदेश
लंका से चलकर अयोध्या में प्रगटे वहां ब्राह्मण से प्रथम भेट हुई। मधुकर बङा ही भावुक पारखी तथा जिज्ञासु भक्त था। उसने मुनिन्द्रनाम साहब को पहचान लिया। कि ये अलौकिक पुरुष हैं।चन्द्रवदन परम प्रकाशवान निर्मल तथा औजस्वी स्वरुप को देखकर मधुकर सद्गुरु के चरणों में गिर पड़ा और विनययुक्त होकर अपने कल्याण की याचना की।
सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब ने मधुकर को मुक्ति तथा सत्यलोक का सारा भेद बता दिया। और घर पर चौका आरती की।
मधुकर के घर पर होने वाले चौका आरती में मधुकर के परिवार परिजनों तथा इष्ट मित्रों सहित मधुकर समेत सोलह व्यक्तियों ने पान परवाना प्राप्त किया और सभी धन्य - धन्य हो गये।
इसके पश्चात रामचंद्र जी से भेंट हुई। उस समय रामचंद्र जी युवाराज अवस्था में ही थे। फिर सद्गुरु से स्नेह भाव से मिले।
सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब ने उनको उस समय का भेद बताया। जिस समय रामचंद्र जी के भविष्य जीवन में यानि वनवास में होने वाली घटनाओं में सबसे विकट परिस्थिति सेतु बन्ध निर्माण की आने वाली ओर निल की करामात को रावण तथा समुद्र नाकामयाब कर देगा।
क्योंकि सारे वरदान शिवजी से प्राप्त है। इधर रामचंद्र जी शिव रुप है। जबकि शिव-विष्णु सम देव रुप है।
उस समय हे! रामचंद्र जी आप सत्त रेखा अथ्वा सत्यनाम की रेखाएं पाषानो पर लिख देना। ताकि वे पाषान समुद्र में डुब ना पावे।
और आपका सेतु पुल बनकर तैयार हो जाएगा। इस सम्बंध में सद्गुरु कबीर साहब के सत्यनिष्ठा परम शिष्य धनी धर्मदास जी साहब अपनी सुन्दर वाणी में कहते हैं। कि-
//रहे नल निल यत्न करि हार तब रघुवीर ने करी पुकार। सत्त रेखा लिखी सुधार सिन्धु में शिला तिराने वाले\
आखिर हुआ यही कि आगे चलकर रामचन्द्र जी समेत सभी वानर निराश हो गए, यहां तक कि नल और नील भी निराश हो गए।
उस समय रामचन्द्र जी को मुनिन्द्र नाम साहब ( कबीर साहेब ) का उपदेशी स्मरण हो आया और उन्होंने सभी वानरों को पाषान सिलाऔं पर सत्यनाम अंकित कर दिया तब सेतु बन्ध तैयार हुआ जिसमें रामचन्द्र जी का मनोरथ सिद्ध हुआ। ( रामायण लिखने वाले ऋषि बाल्मिकी जी तथा गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी रमायण में राम - नाम लिखने की बात लिखते हैं।
मेरे ख्याल में स्वयं रामचंद्र भगवान अपने स्वमुख से अपना नाम लिखने को नहीं कह सकते) खैर ! इस प्रकार मुनींद्र नाम साहब ने रामचंद्र जी को प्रबोध दिया।
इसके बाद रामचंद्र जी की शासनकाल में मुनींद्र नाम साहब ने उनको शिक्षा दी थी, जिसके फलस्वरुप रामचंद्र जी ने राम राज्य की स्थापना की और सत्य वा अहिंसा का पताका लहराया ।
तत्पश्चात रामेश्वरम में हनुमान जी को शिक्षा देने के लिए प्रगट हुए । हनुमान जी ने मुनींद्र नाम साहब (कबीर साहब के स्वरूप को देख कर आश्चर्य किया। शवेत वदन प्रकाश पूज्य ज्योतिमर्मय अत्यंत निर्मल आपके स्वरूप को देखा और पधारने का कारण पूछा। मुनींद्र नाम साहब ने हनुमान जी से कहा कि हे! हनुमान जी आप त्रेतायुग के सर्वश्रेष्ठ भक्त हो। आप की लगन त्याग, सद्भावना तथा सेवा की बराबरी इस युग में कोई नहीं कर सकता। भगवान रामचंद्र जी ने भी अनेक खुले शब्दों में भरत जी से कहते है कि
// भरत भाई कपि से ऊऋण हम नाही।
जो कभी हो तो नहीं जग में को लाधो जग माही //
मुनि नाम साहब हनुमान जी से कहते हैं कि हे ! हनुमान जी आप बहुत बड़े निष्कपट भक्त हो । तुम्हारी तीनों युगों में अखंड पूजा लोग करेंगे लेकिन आप स्वयं मुक्त नहीं हो। आपकी पहुंच विष्णु लोक तक ही है। आपके आराध्य देव श्री रामचंद्र जी विष्णु स्वरूप है । विष्णु भी सत्य पुरुष के सत्यलोक से अपरिचित है।है! हनुमान जी आप की महानता देखकर ही तो मैं तुम्हारे सामने प्रगट हुआ हूं- कि ऐसा निष्कपट जिज्ञासु भक्त सतलोक पहुंचे।
हनुमान जी ने मुनिद्रनाम साहब से ये शब्द सुने तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उधर उनको रामचंद्र जी का पौरूष याद आने लगा तो इधर मुनींद्रनाम साहब का सदुपदेश कलेजे में छेद करने लगा। हनुमान जी ने एक बार जोशीले शब्दों में रामचंद्र जी की लीला पौरुष बल प्रताप का वर्णन किया परंतु सतगुरु ने निष्फल कर दिया और कहा।
हाथां पर्वत तोलते समंदर करते फाल
ढढ़ा होकर चलते , उनको खा गयो काल।
और स्पष्ट कहा -
सिरजन हार ना ब्याही सीता चल प्रसारण नहीं बंधा वे रघुनाथ एक के सुमरे जो सुमरे सो अंधा।।संतो अवे जय सो माया।
है प्रतिपाल काल नहीं बाको ना कहो गया ना आया ।
मुनींद्र नाम साहब ने भिन्न-भिन्न करके हनुमान जी को समझा दिया। भला जिनके सामर्थ्य से सारे लोक , परलोक अधीन हैं तो फिर हनुमान मानते। हनुमान जी सहर्ष, सद्गुरु मुनींद्र नाम साहब का उपदेश क्यों नहीं धारण किया। श्रद्धा विनय युक्त होकर हुआ सद्गुरु के चरणों में गिरते हुए अपने उद्धार की याचना तथा सतलोक दर्शन की चाह करने लगे।
सद्गुरु ने हनुमान जी को मुक्ति का समस्त भेद तथा सतलोक का दर्शन करा दिया। हनुमान जी सतगुरु के शरण होकर धन्य धन्य हो गए और अंत : तोगत्वा सत्यलोक में सत्यपुरुष (परमात्मा) के समीप पहुंच गए। यानी हंस गति को प्राप्त हो गए।
कई लोग आज भी हनुमान जी को देवता के रूप में पूजते हैं और कहते हैं कि हनुमान जी विकराल रूप में प्रगट होते हैं। लेकिन यह सब कालका ही तमाशा है, वह चाहे सो रूप धारण कर लेता है।Readmore://need2knowssomthing.blogspot.com/2018/08/9.html
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