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Wednesday, August 22, 2018

रामानुजनाचार्य

रामानुजनाचार्य
भारतीय वष्णवाचार्यो में रामानुजनाचार्य बङे प्रभावशाली विद्वान तथा प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। इन्होंने सनातन धर्म का प्रचार देश विदेश में बहुत घुम - घुम कर किया।

सद्गुरु कबीर साहब का लक्ष्य दो तरह से प्रगट हो गया। एक तो (कालमाया) के जाल से जीवों को मुक्ति करने का तथा दुसरे तरफ श्रध्दालु जनों को सही मार्ग दर्शन करने के लिए।

 रामानुजनाचार्य स्वामी अत्यंत श्रध्दावान धर्माचार्य थे। सद्गुरु कबीर साहब इनके सन्मुख प्रगट हुए। और इन्हें जगाने  की चेष्टा की प्राथम तो इन्होंने अपनी विद्वानता को प्रदर्शित किया।

 परंतु सत्यपुरुष (परमात्मा) के सामने कैसे ठहर सकती। आखिर रामानुजनाचार्य ने सद्गुरु कबीर साहब को पहिचान लिया। और क्षामा मांगी, और सत्यलोक दर्शन तथा आत्मा कल्याण की याचना की।

 सद्गुरु ने प्रसन्न होकर सारा भेद बता दिया आचार्य धन्य धन्य हो गये।

Tuesday, August 21, 2018

शंकराचार्य

शंकराचार्य

भगवान् महावीर के बाद जैन धर्म तीव्र गति से भारत तथा अन्य देशों में फैलने लगा। और इतना फैला कि राजा-महाराजाओं जैनी ही हो गए।
 
साथ में राजाओं के साथ-साथ प्रजा भी जैन धर्म स्वीकार कर चुकी थी। राजा तथा प्रजा वाली बात हुई। जैन धर्म में पाखण्ड और अंध विश्वास में पङकर शुध्द सनातन धर्म विलुप्त होने लगा।
 
तब शंकराचार्य को आविभाव हुआ। शंकराचार्य स्वामी ने जैनियों की पोल खोलने शुरू कर दिया। और शंकराचार्य से सभी जैनी हारेऔर बन्दी बना लिया।
 
 तत्कालीन सभी राजा महाराजाओं ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार किया। वेसै जैन धर्म हिन्दू धर्म की शाखा है। मगर सनातन से कुछ इसके नियम प्रतिकूल है। इतना होने पर,
 
 शंकराचार्य का प्रभाव बङने लगा। और वे जगदपुज्यनिय हुए। विश्व में प्रथम विद्वानों में माने जाने लगे। तब सद्गुरु कबीर साहब ने इनसे भेट की।
 
शंकराचार्य शास्त्रार्थ स्वभाव वाले थे। इन्होंने सद्गुरु कबीर साहब से ज्ञानगोष्ठी की।शंकराचार्य को बङा गर्व था। कि विश्व में मेरा मुकाबला करने वाला कोई भी नहीं है।
 
 इसलिए शंकराचार्य का गर्व मोचन करने के लिए। ही सद्गुरु कबीर साहब इनसे मिले। आखिर में सद्गुरु कबीर साहब के सामने शंकराचार्य हार गए। और सहर्ष सद्गुरु कबीर साहब का उपदेश अंगीकार करते हुए।
 
 अल्पायु में ही सद्गुरु कृपा से सत्यलोकगामी हो गए। इन्हें दिव्य दृष्टि मिल गई। लोगों का मन्नान है। कि शंकराचार्य कम आयु में ही चल बसे। इस सम्बंध में सद्गुरु कबीर साहब एक सुन्दर प्रमाण देते हैं। कि_
 
.जीवन तो थोड़ा भला,हरि का सुमिरणी होय। 
लाख बशर का जीवणा,लखे धरै ना कोय।।

Monday, August 20, 2018

इब्राहिम, सुलतान, मोहम्मद साहब ईसा मसीह, दाउद, मूसा शंकराचार्य रामानुजनाचार्य आदि को कबीर साहब से मिलना

इब्राहिम, सुलतान, मोहम्मद साहब ईसा मसीह, दाउद, मूसा शंकराचार्य रामानुजनाचार्य आदि को कबीर साहब से मिलना

इब्राहिम सुलतान-
इब्राहिम सुलतान बालख बुखारा का राजा था। मालिक के प्रति अटूट श्रध्दा होने से कबीर साहब बालख बुखारा सुलतान के दरबार में पहुंचे।

सुलतान ने अजनबी रुहानी दौलत वाले फकीर को देखा पुछा। आप कैसे आए और आप कौन हैं। कबीर साहब ने उत्तर दिया में (सत्यपुरुष मालिक) का संदेश लेकर आया हूँ।

 तुम्हारे मालिक के प्रति प्रबल जिज्ञासा देख कर तुम्हारे पास आया हूँ। सुलतान नतमस्तक हुआ और सद्गुरु कबीर साहब को पहिचान कर अपने कल्याण के लिए प्रार्थनीय की।

 सद्गुरु कबीर साहब ने उसे सदुपदेश दिया। और अपने सत्संग से उसे प्रभावित किया। सुल्तान इब्राहिम का ह्रदय पवित्र हो गया। और उसे संसार असार लगने लगा।

 और सत्यनाम सार है ऐसा बोध होते ही राज पाठ छोड़कर फकीर हो गया। और सद्गुरु के शिष्यता स्वीकार किया। और स्वयं कबीर साहब ने इब्राहिम सुलतान के त्याग भक्ति और वैराग्य का वर्णन करते हुए कहा

.सुलताना बालख बुखारे का 
जाके खाना अजब सरहाना, मिसरी कंद छुहारे का।

.जाकी सुर्त है लगी कदंम सो, अल्लह पीर पियारे का।

.जाके सेज फुल सो बिछती, करते सुख तन सारे का।

.अब तो घास बिछावन लागे, मुठ्ठी एक गलियारे का।

.जाके संग कटक दल बादल, झंडा न्यारे न्यारे का।

.माल मुलक तज लई फकीरी, धन सो किन्हें बिचारे का।

.जो तन के चोला जो बनते, सवा टंक सब सारे का।

.सो तो बोझा उठावन लागे, मन दस गुदर भारे का।

.जा मुख चीज नेवाला खाते, करते जीव अहारे का।

.सोअब रुखा पावन लागे, टुकड़ा शाम साकारे का।

.आदम से हो गये औलिया, एक शब्द निरबारे का।

.कहें कबीर सुनो भाई साधु, फक्कर आद अखाड़े का।

.मोहम्मद साहब

हजरत मोहम्मद साहब बङे प्रभावशाली तथा शूरवीर खुदा के पैगम्बर माने जाते थे। तब तक मोहम्मद साहब का खुदा (निरंजन बाबा आदभ) ही था।

 जब तक मोहम्मद साहब को कबीर साहब नहीं मिले थे। मौहम्मद साहब ने कट्टरता के साथ अपना धर्मप्रचार करना शुरू किया।

 मौहम्मद का आदेश था कि या तो मुसलमान बनो वरना मौत को बुलावा दो। चौतरफा हजरत की धाक फैली । जीव दुखी हुए।

 जीवों की आर्तनाद सतपुरुष परमात्मा तक पहुँची। तब सत्यपुरुष ने साहब कबीर को भेजा। मक्का में सद्गुरु कबीर साहब एकदम हजरत मोहम्मद साहब के पास पहुंचे।

हजरत ने रुहानी दौलत युक्त रोशन नुरवाला फकीर अपने जीवन में पहली बार देखकर अतम्भित हुआ। और परिचय पुछा। कबीर साहब ने मौहम्मद साहब को ललकार कर कहा।

 रे! मौहम्मद तुम किसके हुक्म से अपना धर्म जीवों पर थोप रहे हो। ऐसा करना उचित नहीं है। में सत्यपुरुष परमात्मा का संदेश लेकर तुम्हारे पास आया हूँ।

मौहम्मद साहब ने उत्तर दिया मुझे लाहूत से ऐसा आदेश हुआ है। कबीर साहब ने कहा लाहूत काल का स्थान है। जिसे अक्षर पुरुष कहते हैं।

 इस अक्षर पुरुष के आदेशों की पालन से। हे!हजरत तेरी खुश किस्मत नहीं है। मौहम्मद साहब वैसे विवेक थे। इसप्रकार का सद्गुरु का संदेश सुनकर कबीर साहब के चरणों में गिर पड़ा।

और क्षामा मांगते हुए। अपने उद्धार की याचना करने लगे। कबीर साहब ने मौहम्मद साहब की ह्रदय की पवित्रता देखकर समुचित शिक्षा दीक्षा दी।


और पांचवें कलमा का प्रबोध एवं सत्यलोक के दर्शन करा दिए।मौहम्मद साहब सद्गुरु कबीर साहब की कृपा से धन्य हो गये।

ईसा मसीह
पाश्चात्य संतों में ईसा मसीह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनका जन्म ईश्वर की कृपा से एक कुंवारी कन्या मरियम के गर्भ से हुआ था।

कई परिस्थितियों से गुजर कर ये सयाने हुए। सुसस्कार क्रमिक विकास के फल स्वरुप इनकी लगन आत्माशान्ति तथा भजन के लिए संसारिक प्रपंचो से उदासीन रहते हुए हमेशा ही लगी रहती थी।

लेकिन इसकी पहुंच मौहम्मद साहब की तरह लाहूत अक्षर पुरुष तक ही थी। इस अक्षर पुरुष से इनको सब कुछ वरदान प्राप्त था। लेकिन इनको तन्मयता ध्यान लगन तथा श्रध्दा उच्चस्तर की थी।

सद्गुरु ने इनको इस प्रकार की लगन देख कर प्रबोधित किया। वर्तमान ईसा मसीह की स्थिति से अवगत कराकर इसके परे जीवन मुक्ति का मार्ग दर्शाया।

ओर सतपुरुष का भेद बताया। ईसा मसीह ने भी सद्गुरु के प्रति बहुत ही कृतज्ञयता प्रगट की तत्कालीन युग के ईसा मसीह धर्म के महान प्रवरक्त थे।

ऐसा जान कर काल उन पर छागया और अपने चंगुल में फंसा लिया। अल्पायु में ही ईसा मसीह को कुरुस में चढ़ा दी गई।

मुसा
मुसा का जन्म अफ्रीका महाद्वीप के उत्तरी भाग मिश्रदेश में फिरऊन के बन्धन से इब्राहीम की सन्तानो को छुङाने के लिए हुआ था। मुसा सयाने हुए ओर निमित्त कोल पुरा हुआ। सद्गुरु कबीर साहब ने मुसा को भी चेताया और मुक्ति संदेश दिया।

दाऊद और सुलेमान
दाऊद और सुलेमान ये दोनों सुल्तान क्रमशः पिता पुत्र थे। धार्मिक रुचि सन्त सेवा तथा परोपकार इनका जन्म जात स्वमाव था। स्वकल्याण के ये अत्यंत पिपासु थे। सद्गुरु कबीर साहब ने इनकी आत्मा कल्याण की परम मांगलिक भावना देख कर इन्हें शिक्षा दी थी
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Sunday, August 19, 2018

कबीर साहब और गोरख नाथ की गोष्ठी



सद्गुरु कबीर साहब और योगी गोरखनाथ की गोष्ठी (संवाद के रूप में)

सद्गुरु कबीर साहब और गोरखनाथ से भी गोष्ठी हुई,वह संवाद के रूप में तथा कुछ चमत्कार को लेकर हुई। तत्कालीन योगियों में गोरखनाथ बड़े  सिद्ध, साधक, चमत्कारी, प्रभावी तथा योगिनिष्ठ थे। समस्त संसार के योगी इन्हें अपना आदि गुरु मानते हैं इनके प्रभाव से गोपीचंद राजा तथा राजा भर्तृहरि ने संन्यास लेकर ख्याति प्राप्त की थी। गोरखनाथ के गुरु मछिन्द्रनाथ तथा जालंधर नाथ थे।

गोरखनाथ जी की शिष्यों में भर्तृहरि का नाम उल्लेखनीय है। गोरखनाथ को अपनी योग साधना तथा ज्ञन पर बड़ा गर्व था। गोरखनाथ भगवान शिव (शंकर) को इष्ट मानता था। शिव हाजारा हुजूर थे। कई जीवों इनके प्रभाव में आए।गोरखनाथ का स्वभिमान चुर करने तथा जिवों को इनके फन्दे से बचाने एवं गोरखनाथ को मुक्त करने के उद्देश्य को लेकर सद्गुरु कबीर साहब प्रगट हुए।

गोरखनाथ ने सद्गुरु कबीर साहब का सम्मान किया और आने का कारण पूछा। कबीर साहब ने कहा ऐ! गोरख मैं सत्य लोक से आया हूं और सत्यपुरूष ने मुझे आप लोगों को चेतावनी देने भेजा है ध्यान हीन?कि काल माया के फन्देतुम उलझन हो। तुम्हारा अलख निरंजन,शिव ब्रम्हामायावश है। तुम्हारी योग युक्ति की इन्हीं तक है तुम्हे सत्यपुरुष का बोध नहीं है। गोरखनाथ ने कबीर साहब से ऐसी वार्ता सुनीं तो वह बड़ा क्रोध हुआ क्योंकि उसे शिव शक्ति, निरंजन सामथ्य योग सिद्धि तथा अपने ज्ञान पर गर्व था अब गोरखनाथ सदगुरू कबीर साहब से कहने लगे -

.आदिनाथ की नाथ मछिन्दर उनका हु मैं पुत।
   गोरख मेरा नाम है,मारग है अबधुत।

. सुषमनि सांपिन मैं वशकीना। 
 बंक नाल गहि मारग लीना।

. सहस्त्र पंखुरो कमल अनुपा।
  बसे नरिजंन ज्योति स्वरुपा।

.यही ध्यान युग युग चली आवा।
  तुम यह कौन मति उठावा।

तब सदगुरु कबीर साहब गोरखनाथ से कहने लगे। हे गोरख निरं माया वश हैं तथा जन तो शिव ब्रम्हादि योगादि सब काल माया वश हैं

. धोखे गोरख तुम भय, मुद्रा पहरि कान।
कहां मिलोगे पिव सों जब पिण्ड तजोगे प्रान

इस प्रकार शास्त्रर्थ (वाद-विवाद) में गोरखनाथ की एक भी नहीं चली।तब चमत्कार गोरखनाथ उतारू होते हुए त्रिशूल गाड कर उसके ऊपर बैठ गए।


तब कबीर साहब उससे भी ऊपर सुत के कच्चे डोरे को आसमान की तरफ फेंक कर अधर आसन मारकर बैठ गऐ। तब गोरखनाथ देखते रह गए। फिर गोरखनाथ कबीर साहब से कहा कि मुझे आप जल में ढूंढो अौर गोरखनाथ जल में डुबकी मार कर मछली की रूप धारण कर लिया थोड़ी ही देर बाद कबीर साहब उसे जल में से पकड़ लिया। फिर तो गोरखनाथ अपना रूप धारण कर कबीर साहब के चरणों में गिर पड़े और अपने कल्याण के लिए वन्दना करने लगे।

सद्गुरु कबीर साहब ने गोरखनाथ की सद्भाव देखा अौर उपदेश दिया। अपने उपदेश में सदगुरू कबीर साहब गोरखनाथ जी से कहते हैं कि--

. एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
 जो तूं सींचे मूल को, फूले फलै अधाय।।
.घट में बोलता ब्रम्हा है,ताको मरम ना जान।
कर्ता आप सोई है, दूर करै नर ज्ञान।।
. गोरख आप संभारहू, लखो आप में आप।
स्थिर होवो आप में, तो दुसरा पाप।
. धूसर आशा छोड़ के, अविचल राखु शरीर।
अनंत कला है आप में सोहा सत कबीर।।

इतना सुनकर गोरखनाथ धन्य धन्य हो गए।सद्गुरु गोरखनाथ को मुक्ति भेद, सत्यलोक दर्शन तथा सार शब्द दे दिया तब तो गोरखनाथ अत्यंत प्रसन्न होकर सद्गुरु की वंदना करने लगे और कहा -
. टोपी कोपीन कूबरी, झोली झंडा साथ।
दया करी कबीर ने, चढ़ाई गोरखनाथ।।

Saturday, August 18, 2018

कलियुग प्रारम्भ


कलियुग प्रारम्भ सद्गुरु कबीर साहब द्वारा जगन्नाथ जी की मंदिर की स्थापना व इन्द्रदमन को प्रबोधित किया 

निरंजन (कालपुरुष) ने अपने तप तथा भक्ति के बल से द्वापरयुग के बाद जगन्नाथ पुरी ठाकुर जी (श्री कृष्ण जी) का मन्दिर बनवाने का कौल कर लिया था।

 भगवान् श्रीकृष्ण जी की समाधि जगन्नाथ पुरी में ही स्थापित हुई। जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में है। उस समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था।

उसको स्वप्न में ठाकुर जी ने अपना मंदिर बनवाने की आज्ञा दी। राजा इन्द्रदमन ठाकुर जी के परम उपासक थे।

उन्होंने स्वप्न में हुए ठाकुर जी के आदेश की पालन करते हुए समुद्र के किनारे जगन्नाथ जी का मन्दिर बनवाना शुरू कर दिया।

उधर समुद्र और ठाकुर जी(श्री रामचन्द्रजी) का त्रेतायुग का बैर था। क्योंकि भगवान् श्रीराम जी ने समुद्र से जबरदस्ती कर सतरेखा के बल प्रताप से सेतुबन्ध(पुल)बना कर लंका पर विजय कर ली थी।

 इस का रुप ज्योहि राजा इन्द्रदमन जगन्नाथ जी (विष्णु भगवान्) का मंदिर बनकर पुरा करता था। कि समुद्र उसे क्षतिग्रस्त बरबाद कर देता था । इस प्रकार की बर्बादी जगन्नाथ जी का मन्दिर तीन हो गई।

आखिर राजा इन्द्रदमन ने मंदिर बनवाना बन्द ही कर दिय।राजा इन्द्रदमन बिलकुल निराश हो गया और मन ही मन को प्रभु को याद करने लगे।

राजा इन्द्रदमन दिन रात चिन्तित होकर सोचने लगे ऐसा। क्या समुद्र है जो ठाकुर (विष्णु जी) से भी बढ़कर है।

क्या कोई इस ब्रम्हांड में भी सामथ्र्यवान शक्ति है। जो समुद्र का मानमर्दन कर सके।

 राजा की ऐसी आर्तनाद सुनकर सत्यपुरुष स्वरुप सदगुरु कबीर साहब राजा इंद्रदमन के सामने प्रकट हो गए। राजा को प्रकाश पुज्ज स्वरूप श्वेत पुरुष साधु वेश में प्रथम बार के दर्शन हुए थे। राजा की आंखें चकाचौंध हो गई फिर भी राजा इंद्र दमन सद्गुरु के स्वरूप को  निरखता ही रहा और सर्वोंपरि समर्थ जानकर तुरंत चरणों में गिर पड़ा।

और अपना प्रण पूरा करने की सतगुरु से याचना की। तथा अपने कल्याणर्थ प्रार्थनीय प्रस्तुत हुआ। सदगुरु कबीर साहब को अपना पूर्व कौल करार भी पूरा करना था। जो निरंजन ने कलयुग में जगन्नाथ जी का मंदिर समुद्र हटाकर बनाने का वचनन सतगुरु से ले लिया था तथा इधर इंद्रमन की श्रद्धा तथा लगन भी को पूर्ण करना था। तब सदगुरु कबीर साहब ने राजा इंद्र मन से कहा कि हे राजन तुम जगन्नाथ जी का मंदिर बनवाओ। में समुद्र को रोकूंगा। आखिर राजा ने ठाकुर जी का मंदिर बनवा दिया। जब सागर ने उस मंदिर को पूर्ण बना देगा तो उसे नष्ट भ्रष्ट करने के लिए लहरें उठाता हुआ चला।

आगे क्या देखता है कि सदगुरु कबीर साहब मंदिर के चौरे पर विराजमान हैं उनको देखते ही वह शांत हो गया और विप्र रूप धारण कर सतगुरु के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा है। स्वामी त्रेता युग का मेरा जगन्नाथ जी (रामचंद्र जी) से बैर है। उस समय आपकी सत्यनाम रेखा से मैं लाचार हुआ था। तब कबीर साहब ने कहा कि मैं भी निरंजन को वचन दे चुका हूं कि तेरा जगन्नाथ जी का मंदिर समुद्र को हटाकर बनवा दूंगा। इसलिए हे सागर आप ऐसा करिए इस जगन्नाथ जी के मंदिर को कायम रहने दीजिए।

इसके बदले में तुम्हें द्वारिकापुरी सौंपता हूं आप अपना बदला लेते रहें। समुद्र गुनाह विनय युक्त होता हुआ चल दिया और उसकी द्वारिका के स्वर्ण मंदिर को डूबा दिया तथा अपने पूर्व का बदला ले लिया ।

इसके पश्चात राजा इंद्रदमन को सदगुरु कबीर साहब ने जीवंती का सारा भेद बता दिया। पूणं शिक्षा दीक्षा देते हुए परिवार समय उसको मुक्त कर दिया। इंद्र दमन में सारी करामात साहब की देख ली जिस समय विप्र रूप धारण करके समुद्र आया तब से लेकर पीछे हटा तब तक की लीला देखकर राजा आश्चर्यन्वित हुआ।
सदगुरु कबीर साहब जीवों का उद्धार करने के लिए चौदह बार प्रगट हुए।

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Friday, August 17, 2018

गरुङ व दुर्वासा को सद्गुरु कबीर साहब द्वारा उपदेश व अन्य राजॠषि प्रबोध

श्वपच सुदर्शन, गरुङ व दुर्वासा को सद्गुरु कबीर साहब द्वारा उपदेश व अन्य राजॠषि प्रबोध


काशी में एक भन्गी परिजन श्वपच सुदर्शन को कबीर साहब मिले। और उसे शिक्षा दीक्षा दी। महा भारत युध्द पाण्डवों की विजय हुई। और कौरव हार गए। भगवान् श्रीकृष्ण के नेतृत्व में पाण्डव थे।विजय के बाद धर्मराज युधिष्ठिर राजा बने। एक दिन धर्मराज को स्वप्न दिखाई दिया। जिसमें सिर कटे हुए शरीर दिखाई दिए । और सिर कटे चीखे मार रहे थे। चौतरफा पाप छाया दिखाई दिया। स्वप्न टूटने पर धर्मराज दुखी हो कर कृष्ण के पास जाकर बोले, महाराज रात को ऐसा पापयुक्त भयानक स्वप्न देखा।जिसमें मैं एकदम अशांत हो गया हूं। कृष्ण जी कहा धर्मराज बात तो बिल्कुल सत्य है। पाप तो तुमसे हुआ है। तब धर्मराज ने कहा कि हे प्रभु! प्रायश्चित है। मैं इन पापों से कैसे छुटूंगा। कृष्ण जी ने कहा तुम महायज्ञ करो पृथ्वी के भगवद भक्तों को भोजन करवाओ। तब अधर में सात घंटे बजेंगे तब समझना कि पापों से छुटकारा मिल गया।धर्मराज युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया और यज्ञ करवाया। जिसमें करोड़ों साधु भक्त भोजन कर चुके मगर अधर शुन्य में एक भी टंकार नहीं बजा।तब निराशा होकर कृष्ण जी के पास जाकर बोले। महाराज यज्ञ पुरा होने जा रहे हैं, और अभी तक शुन्य घंटनाद बाजे ही नहीं। कृष्ण जी ने दिव्य दृष्टि से ध्यान लगाया ओर कहा। धर्मराज  अपके यज्ञ में सद्गुरु भक्त ने भोजन नहीं किया है। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा महाराज करोड़ों भक्त भोजन कर गए। क्या उनमें एक भी सच्चा भक्त नहीं।तो फिर बताओ भगवान् इस धाराधाम पर ऐसा सच्चा भक्त हैं। मैंने तो सब जगह डूँङी पिटवा दी थी, फिर वह आया क्यों नहीं उसे मेरे यज्ञ में आना चाहिए था।कृष्ण जी ने कहा राजन विवेक हंस सद्गुरु भक्त यज्ञों का या डुंडी पटवाने की परवाह नहीं करते वे तो भावानुग्रह से ही आ पाते हैं। इस सम्पूर्ण दृष्टि में सद्गुरु के हंस कबीर भक्त शिरोमणि श्वपच सुदर्शन है।जो भंगी(डोम) है। और काशी में रहते हैं। उसे बुलाकर भोजन करवाओ। तब जाकर तुम्हारा यज्ञ पुरण होकर आकाशीय गुप्त घंटा बजेगे। युधिष्ठिर ने भीम को बुलाने भेजा।भीम ने श्वपच जी से आकर कहा तुम्हें धर्मराज ने बुलाया है। श्वपच सुदर्शन ने तत्काल इन्कार कर दिया। और बोला हम राजा-महाराजाओं के यहां नहीं जाते। इनमें महाभिमान होता है।ऐसा सुनते ही बङा क्रोध हो गए,मन ही मन में सोचने लगे। ऐसे (डोम) को एक गदा मारु तो पताल में गाङ दु। श्वपच जी ने भीम के मन की बात जानकर तत्काल बोले, चलो मैं आपके साथ धर्मराज के यज्ञ में चलता हुँ। मेरे सुमिरणी पड़ी है। इसे ले आओ। मैं घर जाकर आ रहा हूँ। भीम ने तुरंत सुमिरणी को उठाने की चेष्टा की मगर भीम जैसे पराक्रमी की पुरी ताकत लगाने पर भी नहीं हिली।भीम लज्जित होकर तुरंत अपने सोचाे हुए, पर पश्चात् करते हुए लौट गए। और सारा हाल धर्मराज व कृष्ण जी से आकर कहा दिया।तब धर्मराज स्वयं श्वपच जी के पास जाकर विनय शील हुए। धर्मराज का सदभाव जानकर श्वपच जी चले। द्रोपदी ने विविध भांति के पकवान बनाकर श्वपच जी को परोसें। श्वपच जी ने सबको शामिल कर लिया, और खाने लगे।तब द्रोपदी ने सोचा यह आदमी कैसा निकम्मा है। जो स्वाद लेता ही नहीं। तब श्वपच जी ने द्रोपदी के मन की बात जान ली, और तीन ग्रास लेकर उठ गए।तब तक तीन घंटे ही बजे। धर्मराज ने कृष्ण जी से कहा,तब कृष्ण जी ने कहा, द्रोपदी की ग्लानि से भक्त ने भोजन नहीं किया। तब धर्मराज ने पुनः विनय युक्त हुए। और क्षामा मांगी तब जाकर श्वपच सुदर्शन जी ने प्रेम से प्रसाद लिया। आकाश में सात घंट बजे। धर्मराज का यज्ञ सम्पन्न होकर पापों से छुटकारा मिला। सद्गुरु के भक्तों का ऐसा प्रताप होता है।इन्हीं दिनों में सद्गुरु कबीर साहब से भेंट गरुङ जी से हुई। तथा उन्होंने गरुङ जी ब्रह्मा, विष्णु, शिव, माया व निरंजन काल रुप बधनयुक्त बताया। और जीवन मुक्ति के लिए।सतपुरुष तथा सत्यलोक का भेद बताया। गरुङ जी बङे आश्चर्यनि्वत हुए। और कृष्ण जी से जाकर कहा। तब कृष्ण जी ने कहा गरुङ जी सुनो कबीर साहब अलौकिक पुरुष हैं। साक्षात परब्रह्म है।और सच्चे सद्गुरु है। गरुङ जी अाप मुक्ति चाहते हो तो सद्गुरु से दीक्षा लेलो।कृष्णा जी के कहने पर गरूर जी को विश्वास हो गया और ठाट-बाट से चौका आरती करवा कर सभी मुख्य देवताओं और संत मुनियों को बुलाकर गुरु जी ने कबीर साहब से दीक्षा ग्रहण की और जीवन मुक्ति का सारा भेद प्राप्त कर सत्यपुरुष के दर्शन किए।गरुड़ जी की प्रतिष्ठा तीनो लोक में फैल गई और हंस कबीर हो गए। इनके बाद कबीर साहब ने दुर्वासा ऋषि को शिक्षा दी। दुर्वासाशिवा वतार थे। इनके बाद जग जीवन को प्रबोधित किया। जगजीवन को मातृगर्भ में चेताया था। इसके बाद राजा जगजीवन का सूखा बाग हरा कर दिया, तब जग जीवन प्रभावित होकर सद्गुरु का दास बना और शिक्षा दीक्षा ग्रहण करके अपना कल्याण किया। साथ में राजा जगजीवन की 12 रानिया और 4 पुत्र तथा अन्य मित्र कुल 500 जीवों का उद्धार जगजीवन के साथ हुआ।इनके पश्चात लोमस ऋषि,कस्टमऋषि, धनुष मुनि,गुप्तमुनि, दत्तात्रेय, नारद,सनकादिक,अमर सिंह, ऋषभनाथ, भुशुण्डी, भोगनृप, राजा यंगधीर, राजा भूपाल आदि को शिक्षा दीक्षा से सद्गुरु लाभान्वित कियाइसका प्रमाण कबीर मनसुर कबीर सागर तथा अन्य कई कबीरपंथी ग्रंथों में है तथा सबसे पख्ता एवं सत्य प्रमाण सदगुरु कबीर साहब के वचन है जो धनी धर्मदास जी को उपदेश देते समय तथा धर्मदास जी द्वारा पूछने पर चारों युग की सत्य, सद्गुरु कबीर साहब ने कही।

.मसि कागद छुयो नहीं, कलम गहै नहिं हाथ।
.चारों युग की वार्ता, मुखहि जनाई बात।।
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Thursday, August 16, 2018

राजा चंद्र विजय तथा रानी इन्द्रमती को प्रबोधित किया

करुणामयनाम साहब ने गिरिनार के राजा चंद्र विजय तथा रानी इन्द्रमती को प्रबोधित किया

त्यलोक से सत्यपुरुष ने द्वापरयुग में काल माया के बन्धन से जीवों को छोड़ने के लिए ही स्वरूप में करुणामयनाम साहब को अवनीतल पर भेजा। 

करुणामयनाम साहब गिरिनार पहुंचे। वह राजा चंद्र विजय की रानी इन्द्रमती बङी ही श्रध्दावान स्नेहमयी भगवद् भक्त तथा संतों की सेवा करने वाली थी। 
किसी भी संत को देख लेती या सुन लेती कि नगरी में कोई संत आया है। तो वह प्रेम पूर्वक उस साधु को बुलाकर सेवा बन्दगी करती।
 भाव भजन सत्संग में भी रानी की बहुत रुचि थी। करुणामयनाम साहब (कबीर साहब )ने रानी को मुक्ति पद की अधिकारिणी समझ कर रानी इन्द्रमती के समीप गये।
रानी इन्द्रमती महल की अटारी पर बैठे -बैठे कुछ चिंतन कर रही थी। कि एक साधु वर्ष में श्वेत पुरुष अत्यंत स्वरुप वान तेजोमय मस्त से गुजर रहे थे। 
वे करुणामयनाम साहब ही थे।रानी ने दूर से ही दर्शन किए। उसकी आत्मा गद् गद् हो गई। और तत्काल अपनी दासी को बुलाने भेजा। 
दासी ने तुरंत करुणामयनाम साहब से कहा। कि- आपको यहां की रानी इन्द्रमती बुला रही है। करुणामयनाम साहब ने कहा कि- हम राजा महाराजाओं के यहां नहीं आते।
 राजमहलों राजाओं को राजमद् धनमद् तनमद् का उनमाद रहता है। इस लिए मैं नहीं आता। दासी निराश होकर लौट गई। ओर सारे समाचार रानी को कह दिया।
 रानी बङी भावुक थी उसमें अहंकार लवलेश मात्र ही नहीं था। उसने अपनी सारी मान मर्यादा तोड़ कर दासी को साथ ले लिया। और करुणामयनाम साहब के पास चली गई।
 बङे विनय पूर्वक साष्टांग प्रणाम करते हुए चरणों में लिपट गई। और प्रेमस्रु बहाकर कहने लगी -हे -दयानिधि! दया करो और मेरे घर आँगन में पधारो तथा मेरा कल्याण करो।
 करुणामयनाम साहब ने इन्द्रमती के सद्भाव को जान कर बङे प्रेम से रानी के राजमहल में चले गए। रानी ने चरण पखार कर चरणामृत लिया। और अपनी गति मुक्ति के लिए विनय करने लगी। 
सद्गुरु ने मुक्ति के लिए सारा भेद बता कर सत्यलोक के दर्शन करवाया। इतना सब कुछ होने पर रानी इन्द्रमती ने अपने पति राजा चंद्र विजय को दीक्षा देने की प्राथना सद्गुरु से की।
 सद्गुरु करुणामयनाम साहब ने रानी की प्राथना को स्वीकार कर लिया। रानी ने अपने पति राजा चंद्र विजय से सतपुरुष का सारा हाल कहा सुनाया। राजा चंद्र विजय भी जिज्ञासु परिजन थे।
वे भी अपने कल्याण के पिपासु थे। तुरंत सद्गुरु करुणामयनाम साहब के चरणों में पहुंचे। सद्गुरु ने राजा रानी तथा अन्य परिवार परिजनों को पान परवाना देकर मुक्त कर दिया। 
अपने जीवों के कल्याणार्थ सतपुरुष स्वरुप करुणामयनाम साहब अनेकों बार द्वापरयुग में इस धाराधाम पर प्रगट हुए। ये सतपुरुष रहे हैं। स्वरुप ज्ञानी जी चारों युगों में प्रगट होते हैं। इनकी गर्भोत्पति नहीं होती है!

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Wednesday, August 15, 2018

द्वापरयुग में करूणामय साहब का पप्रगट होना

द्वापर युग में सत्य पुरुष स्वरुप में करुणामय नाम साहब का प्रगट होना 

जब जब भी निरंजन (काल पुरुष) का प्रभाव बढ़ा उनके जीवों को अत्यन्त दुःखी पहुंचाया जानें लगा तथा धर्म में पाखण्ड फैला तब तब ही सत्यपुरूष  (परमात्मा) ने अपने स्वरूप में ज्ञानी जी को भवसागर में सत्यलोक से भेजा ओर कहा की ज्ञानी जी जाओ काल का मान मर्दन करो जीवों को चेताओ एवं जीवों के लिए मुक्ति का द्वार खोल दो।
इसलिए ज्ञानी जी का समय-समय पर चारों ही युगों में आना हुआ। आप जब जब भी पधारे तब तब ही काल गिड़गिड़ाया और ज्ञानी जी के सामने नतमस्तक होकर हर आदेश को स्वीकार किया।
ये ज्ञानी जी सत्युग में सत्यसुकृत, त्रेता युग में मुनींद्र, द्वापर युग में करुणामय नाम तथा कलियुग में कबीर नाम से प्रख्यात हुए।

 त्रेतायुग में सारी ब्यवस्था करके अनेक जीवों को चेताया,तथा सत्यलोक पहुंचाया। एवं काल को दबाकर मुनिन्द्रनाम साहब सत्यलोक पधार गए।

इनके सत्यलोक जाने के बाद द्वापरयुग प्रारंभ होता है। और काल जाल का ताना बाना फिर से फैलने लगा। काल के प्रधान काम, क्रोध, मद, लोभ, और मोह, ने प्रभुत्व जमाया।
धर्म में क्षेपक डाला जाने लगा। जीवों को फसाया जाने लगा। इस प्रकार जीवों को दुखी होता देख कर, सतपुरुष ने अपने ही स्वरूप में करुणामयनाम साहब ने धर्मराज युधिष्ठिर परम जिज्ञासु अर्जुन आत्मावत सर्व भूतेषु "यानि सब परमात्मा एक भाव से रम रहा है।
 ऐसा उपदेश दिया जिसके फल :स्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण चंद्र की महा भारतीय गदर की योजना ठप्प हो गई। सतपुरुष का कार्य सिर्फ चेताना है।
जिन्होंने भी सत्यपुरुष के उपदेशों को ह्रदयगम कर लिया उसका बेङा पार हो गया। लेकिन काल ने फिर अपने चक्रव्यूह में युधिष्ठिर और अर्जुन को फसा ही दिया। और महा भारत रचा ही दिया।
काल गति बङी बिलक्षण है। बिना सद्गुरु कि कृपा के तथा स्वयं की पूरी लगन के बिना काल से छुटना सहज नहीं है। सूक्ष्म वेद वाणी में कबीर कृष्ण गीता इसका प्रमाण है।readmore ://need2knowssomthing.blogspot.com/2018/08/11.html






 

Tuesday, August 14, 2018

विदेह राजा जनक को मुनींद्रनाम साहब द्वारा संबोधन

राजा जनक को त्रेतायुगाविभावक मुनींद्र नाम साहब द्वारा संबोधन ।।

त्रेतायुग में मुनींद्र नाम साहब जिवों के  तथा कालपुरुष का मान मदन करने के लिए अनेकों बार प्रगट हुए। तत्कालीन जिज्ञासुओं, ऋषियों, मुनियों राजा-महाराजाओं, भावुक-भगतो तथा अधि भक्तों तथा अधिकारी अनेक जिवों को उन्होंने शिक्षा दी। जिन्होंने दास भाव से उनके उपदेशों को ह्रदयगम किया उनका तो उद्दार ही हो गया जो अहंकार बस रहे वे आज तक इसी  भवसागर में भटका खा रहे है ।

 


 
 
भगवान नारायण ने भी अमुक्त मुनि श्री सुखदेव को बैकुंठ से पुनः संसार में जाकर राजा जनक से उपदेश प्राप्त करने को भेज दिया था । सुख देव मुनि भी जनक जी से शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर धन्य धन्य हो गए थे।
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना लागे गुरु की सेव।
राजा जनक गृहस्ती  संत हो गए थे, जिन्हें कबीरी कहते हैं। यह सद्गुरु कृपा का ही फल था। सद्गुरु मुनींद्र नाम साहब जनकपुरी में जाकर राजा जनक को चेताया । राजा जनक सद्गुरु के देदीप्यमान स्वरूप को पहचानकर चरणों में गिर पड़े और कल्याण के लिए वंदना करने लगे। सतगुरु ने दया भाव से जनक जी को जीवन सुधार, जीवन मुक्ति तथा सारी ज्ञान का सारा भेद बता कर सत्य पुरुष का दर्शन कराया ।
कहैं कबीर विचारि के, झूठा लोहू  चाह:।।
 ं
इस प्रकार अतीत के धरातल की प्राप्ति सद्गुरु के बिना नहीं हो सकती। अतीत का धरातल सत लोक है। जो पंच विषयातीत, पंच भूतातीत, मायातीत तथा कालातीत है। इसलिए जनक जी पूर्ण साधक सद्गुरु कृपा से बने तथा भवसागर में विदेह पुरुष कहलाए। इसका प्रमाण सदगुरु कबीर साहब द्वारा सत्य सत्य कही हुई उनकी सूक्ष्म वेद की वारणी है।

 

त्रेतायुग में राजाओं में जनक जी का नाम बड़ा ही उल्लेखनीय है । परशुराम अवतार द्वारा धरती नि:क्षत्रिय बनाने पर भी क्षत्रिय राजा जनक जी का बाल बांका नहीं हुआ । यह सद्गुरु मुनिन्द्र नाम साहब की कृपा थी जिन्होंने जनक जी को विदेह स्वरूप बिना सूक्ष्म वेद के उपदेश के बिना सम्भव नहीं है तथा सूक्ष्म वेद के आदि प्रवक्ता सतगुरु कबीर साहिब ही है।


सद्गुरु मुनींद्र नाम साहब (कबीर साहब) के कृपा प्रसाद तथा शिक्षा दीक्षा के फल : स्वरुप जनक की तत्कालीन गुरु पद पर भी आसीन हुए थे। तीन लोक में जनक जी की प्रतिष्ठा थी।

कहीं कभी बैंकण्ठ से फेर दिया सुखदेव।।

जनक जी ने पूरी लगन से सतगुरु के उपदेशों का पालन किया, जिसके फलस्वरूप वो विजय स्वरूप होकर त्रिलोक विद कहलाए । उन्हें सत्य असत्य की पूर्ण रुप से पारख हो गई थी। 

सदगुरु कबीर साहब कहते हैं कि-

देह रहित ही ह: रहे सो है रमताराम।

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Monday, August 13, 2018

त्रेतायुग प्रबोधक मुनिन्द्रनाम साहब ने लंका में आगमन

 

त्रेतायुग प्रबोधक मुनिन्द्रनाम साहब ने लंका में विचित्र भाट मन्दोदरी व रावण को चेतावनी दी 

त्रेतायुग में लंका का राजा रावण तत्कालीन प्रशासकों में पराक्रमी तथा देवत्व प्रसाद से विद्वान एवं चमत्कारी था। 


रावण ने काल वश अनीति अपनाकर सन्त महातओं देवताओं तथा जीवों को कष्ट देना शुरू किया।
 पुरा संसार रावण से भयभीत एवं त्रस्त था। जीवों की आर्तनाद (सतपुरुष परमात्मा) तक पहुँची तब सत्यपुरुष मुनिन्द्रनाम साहब के रूप में प्रकट हुए। 


और सर्वारम्भ में लंका में पहुंचे लंका के प्रवेश द्वार पर एक अत्यंत जिज्ञासु परमपारखी व प्रभुभक्त विचित्र भाट को मुनिन्द्रनाम साहब के दर्शन हुए।
श्वेत पुरुष प्रकाश पुन्ज स्वरुप साधु में मुनिन्द्रनाम साहब के दर्शन कर तत्काल चरणों में गिर पड़ा। और अपने कल्याण के लिए विनययुक्त हुआ।


 सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब (कबीर साहब) ने दया कर विचित्र भाट को मुक्ति का संदेश दिया। और उसका कल्याण कर दिया।
 विचित्र भाट गद्-गद् हो गया। और तुरंत रावण की स्त्री मन्दोदरी को सत्यपुरुष मुनिन्द्रनाम साहब के आने की सूचना दे दी।


 रानी मन्दोदरी ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक मुनिन्द्रनाम साहब का सम्मान किया। और दर्शन कर धन्य हो गई।
मुनिन्द्रनाम साहब के रूप को देखकर उसने साक्षात (परमात्मा)जैसे अनुभव किया। और विनययुक्त होकर अपने कल्याण की याचना की।
रानी मन्दोदरी के हाव, भाव, निष्ठा, लगन, श्रध्दा तथा विश्वास को देखकर सतगुरु ने उसे मुक्ति का भेद बता दिया।


 रानी मन्दोदरी ने मुनिन्द्रनाम साहब से शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर उनकी बहुत - बहुत वन्दना स्तुति की। ओर अपने पति के उद्धार के भी साहब से याचना की।


 रावण को बुलाने के लिए मुनिन्द्रनाम साहब ने द्वारपाल को भेजा। द्वारपाल ने जाकर राजा रावण से कहा।
 कि आपको एक सिध्द साधु बुलाता है। रावण को अपने आप पर बहुत घमंड था। यह सुनकर बहुत क्रोधित हुआ। 


और कहा ऐ!द्वारपाल तु बङा बवेकूप है। तुमने उस साधु से कहा नहीं की तेरे बुलाने से रावण कैसे आएगा। मेरे दर्शन तो देवताओं को भी दुर्लभ है।
रावण से द्वारपाल ने कहा महाराज! वे सिध्द साधु ते बङे ही ओजस्वी श्वेत पुरुष प्रकाश पुन्ज स्वरुप हे।
मैंने तो आज तक इतना तपस्वी प्रभाव शाली साधु नहीं देखा। 


महराज। साक्षात परमात्मा जैसे नजर आते हैं। रानी मन्दोदरी भी उस समय वहां पहुंच गई।


 ओर उसने रावण को समझाया। हे पतिदेव पधारो! साक्षात सत्यपुरुष परमात्मा का अपने राजदरबार में पधारना हुआ है।


 अपने कितने आहोभागय है। कि आज अपने घर परमात्मा आए हैं। जाकर दर्शन करो। और उनके उपदेश को ग्रहण कर अपना उद्धार करलो।
परंतु रावण तो काल वश था। उस पर  निरंजन (कालपुरुष)पुरी तरह से छाया हुआ था।


 उसे अपने वरदान पराक्रम तथा विद्वता का भी बड़ा घमंड था। उसने द्वारपाल तथा अपनी रानी मन्दोदरी की बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।


ओर क्रोध वश गरजा तथा बोला भगवान् शंकर से बढ़कर और कोन सा परमात्मा है। जो सदैव मेरे पास रहते हैं। आभी दिखाता हुँ।
 कौन सा सिद्ध है।कितनी उसमें करामात है। जो मुझे बुलाता है। मुझे बुलाना उनके लिए मंहगा पङ जाएगा।


 बेचाराद्वारपाल व रानी मन्दोदरी घबरा गए। मुर्छा खाकर गिर गए। कि देखो साहिब का यह दुष्ट न मालूम क्या अपमान करेगा।
रावण तत्काल तलवार लेकर उठा। ओर मुनिन्द्रनाम साहब के पास जा पहुंचा। और गौर से देखा। कुछ उसकी अन्तरआत्मा ने सद्गुरु को पहचाना।
 लेकिन काल वश मुनिन्द्रनाम साहब पर टूट पड़ा और तलवार चलादी। रावण ने अनेकों प्रहार किए। लेकिन मुनिन्द्रनाम साहब का बाल भी बांका नहीं हुआ क्योंकि वे तो विदेह पुरुष थे। 


रावण थककर चुर हो गया। ओर लज्जित हो गया। तब रानी मन्दोदरी ने कहा हे स्वामी! अब तो समझो प्रत्यक्ष को क्या प्रमाण कि आवश्यकता है।
 देखो ये साक्षात सत्यपुरुष परमात्मा है। इसके चरणों में गिर जाओ। और दीक्षा ग्रहण कर अपना कल्याण कर लो।परंतु रावण पर कालपुरुष अहंकार मदादि छाए थे।
तत्काल बोला में सिवाय शिवजी को छोड़कर किसी के भी सामने नहीं झुकूंगा। मुझे सब कुछ शिवजी ने दे रखा है। बिचारी मन्दोदरी बङी निराश हुईं।


 और रो पीट कर रह गई। फिर सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब (कबीर साहब) ने अपने प्रिय भक्त विचित्र भाट श्रध्दामयी रानी मन्दोदरी को शिक्षा सान्तवना तथा उपदेश दृढाकर अयोध्या की तरफ चल दिया।
 अयोध्या श्री रामचन्द्रजी को दो बार चेताया। और युक्ति बतायी, प्रथम रामचंद्र जी के वन वास से पूर्व जिसमें सेतुबन्ध निर्मित होसके इसलिए सत्यनाम की रेखा पर लिखने का आदेश दिया।

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त्रेतायुग समुध्दारक मुनिन्द्रनाम साहब द्वारा अयोध्या के मधुकर ब्राह्मण राम

त्रेतायुग समुध्दारक मुनिन्द्रनाम साहब द्वारा अयोध्या के मधुकर ब्राह्मण रामचंद्र जी व हनुमान जी को उपदेश 

लंका से चलकर अयोध्या में प्रगटे वहां ब्राह्मण से प्रथम भेट हुई। मधुकर बङा ही भावुक पारखी तथा जिज्ञासु भक्त था। उसने मुनिन्द्रनाम साहब को पहचान लिया। कि ये अलौकिक पुरुष हैं।
चन्द्रवदन परम प्रकाशवान निर्मल तथा औजस्वी स्वरुप को देखकर मधुकर सद्गुरु के चरणों में गिर पड़ा और विनययुक्त होकर अपने कल्याण की याचना की।

सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब ने मधुकर को मुक्ति तथा सत्यलोक का सारा भेद बता दिया। और घर पर चौका आरती की।

मधुकर के घर पर होने वाले चौका आरती में मधुकर के परिवार परिजनों तथा इष्ट मित्रों सहित मधुकर समेत सोलह व्यक्तियों ने पान परवाना प्राप्त किया और सभी धन्य - धन्य हो गये।

इसके पश्चात रामचंद्र जी से भेंट हुई। उस समय रामचंद्र जी युवाराज अवस्था में ही थे। फिर सद्गुरु से स्नेह भाव से मिले।

सद्गुरु मुनिन्द्रनाम साहब ने उनको उस समय का भेद बताया। जिस समय रामचंद्र जी के भविष्य जीवन में यानि वनवास में होने वाली घटनाओं में सबसे विकट परिस्थिति सेतु बन्ध निर्माण की आने वाली ओर निल की करामात को रावण तथा समुद्र नाकामयाब कर देगा।

क्योंकि सारे वरदान शिवजी से प्राप्त है। इधर रामचंद्र जी शिव रुप है। जबकि शिव-विष्णु सम देव रुप है।

उस समय हे! रामचंद्र जी आप सत्त रेखा अथ्वा सत्यनाम की रेखाएं पाषानो पर लिख देना। ताकि वे पाषान समुद्र में डुब ना पावे।

और आपका सेतु पुल बनकर तैयार हो जाएगा। इस सम्बंध में सद्गुरु कबीर साहब के सत्यनिष्ठा परम शिष्य धनी धर्मदास जी साहब अपनी सुन्दर वाणी में कहते हैं। कि-

//रहे नल निल यत्न करि हार तब रघुवीर ने करी पुकार। सत्त रेखा लिखी सुधार सिन्धु में शिला तिराने वाले\


आखिर हुआ यही कि आगे चलकर रामचन्द्र जी समेत सभी वानर निराश हो गए, यहां तक कि नल और नील भी निराश हो गए।

उस समय रामचन्द्र जी को मुनिन्द्र नाम साहब ( कबीर साहेब ) का उपदेशी स्मरण हो आया और उन्होंने सभी वानरों को पाषान सिलाऔं पर सत्यनाम अंकित कर दिया तब सेतु बन्ध तैयार हुआ जिसमें रामचन्द्र जी का मनोरथ सिद्ध हुआ। ( रामायण लिखने वाले ऋषि बाल्मिकी जी तथा गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी रमायण में राम - नाम लिखने की बात लिखते हैं।

मेरे ख्याल में स्वयं रामचंद्र भगवान अपने  स्वमुख से अपना नाम लिखने को नहीं कह सकते) खैर ! इस प्रकार मुनींद्र नाम साहब ने रामचंद्र जी को प्रबोध दिया।

इसके बाद रामचंद्र जी की शासनकाल में मुनींद्र नाम साहब ने उनको शिक्षा दी थी, जिसके फलस्वरुप रामचंद्र जी ने राम राज्य की स्थापना की और सत्य वा अहिंसा का पताका लहराया ।

तत्पश्चात रामेश्वरम में हनुमान जी को शिक्षा देने के लिए प्रगट हुए । हनुमान जी ने मुनींद्र नाम साहब (कबीर साहब के स्वरूप को देख कर आश्चर्य किया। शवेत वदन प्रकाश पूज्य ज्योतिमर्मय अत्यंत निर्मल आपके स्वरूप को देखा और पधारने का कारण पूछा। मुनींद्र नाम साहब ने हनुमान जी से कहा कि हे! हनुमान जी आप त्रेतायुग के सर्वश्रेष्ठ भक्त हो। आप की लगन त्याग, सद्भावना तथा सेवा की बराबरी इस युग में कोई नहीं कर सकता। भगवान रामचंद्र जी ने भी अनेक खुले शब्दों में भरत जी से कहते है कि

// भरत भाई कपि से ऊऋण हम नाही।
जो कभी हो तो नहीं जग में को लाधो जग माही //

मुनि नाम साहब हनुमान जी से कहते हैं कि हे ! हनुमान जी आप बहुत बड़े निष्कपट भक्त हो । तुम्हारी तीनों युगों में अखंड पूजा लोग करेंगे लेकिन आप स्वयं मुक्त नहीं हो। आपकी पहुंच विष्णु लोक तक ही है। आपके आराध्य देव श्री रामचंद्र जी विष्णु स्वरूप है । विष्णु भी सत्य पुरुष के सत्यलोक से अपरिचित है।है! हनुमान जी आप की महानता देखकर ही तो मैं तुम्हारे सामने प्रगट हुआ हूं- कि ऐसा निष्कपट जिज्ञासु भक्त सतलोक पहुंचे।

हनुमान जी ने मुनिद्रनाम साहब से ये शब्द सुने तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उधर उनको रामचंद्र जी का पौरूष याद आने लगा तो इधर मुनींद्रनाम साहब का सदुपदेश कलेजे में छेद करने लगा। हनुमान जी ने एक बार जोशीले शब्दों में रामचंद्र जी की लीला पौरुष बल प्रताप का वर्णन किया परंतु सतगुरु ने निष्फल कर दिया और कहा।

हाथां पर्वत तोलते समंदर करते फाल 
ढढ़ा होकर चलते , उनको खा गयो काल।

और स्पष्ट कहा -

सिरजन हार ना ब्याही सीता चल प्रसारण नहीं बंधा वे रघुनाथ एक के सुमरे जो सुमरे सो अंधा।।
संतो अवे जय सो माया।
है प्रतिपाल काल नहीं बाको ना कहो गया ना आया ।

मुनींद्र नाम साहब ने भिन्न-भिन्न करके हनुमान जी को समझा दिया। भला जिनके सामर्थ्य से सारे लोक , परलोक अधीन हैं तो फिर हनुमान मानते। हनुमान जी सहर्ष, सद्गुरु मुनींद्र नाम साहब का उपदेश क्यों नहीं धारण किया। श्रद्धा विनय युक्त होकर हुआ सद्गुरु के चरणों में गिरते हुए अपने उद्धार की याचना तथा सतलोक दर्शन की चाह करने लगे।

सद्गुरु ने हनुमान जी को मुक्ति का समस्त भेद तथा सतलोक का दर्शन करा दिया। हनुमान जी सतगुरु के शरण होकर धन्य धन्य हो गए और अंत : तोगत्वा ‌ सत्यलोक में सत्यपुरुष (परमात्मा) के समीप पहुंच गए। यानी हंस गति को प्राप्त हो गए।

कई लोग आज भी हनुमान जी को देवता के रूप में पूजते हैं और कहते हैं कि हनुमान जी विकराल रूप में प्रगट होते हैं। लेकिन यह सब कालका ही तमाशा है, वह चाहे सो रूप धारण कर लेता है।Readmore://need2knowssomthing.blogspot.com/2018/08/9.html




Sunday, August 12, 2018

त्रेतायुग में सद्गुरु कबीर साहब मुनिन्द्रनाम साहब के रूप में प्रगट हुए

त्रेतायुग में सद्गुरु कबीर साहब मुनिन्द्रनाम साहब के रूप में शिक्षा दीक्षा देते हुए


सत्ययुग के बाद त्रेतायुग की शुरुआत हुई। निरंजन (कालपुरुष) ने अपना हठ धर्म नहीं छोड़ा। वह अपने जाल में फंसा कर जीवों को कष्ट देता ही रहा ।

सत्ययुग में अनेक बार सत्यपुरुष स्वरुप में सत्यसुकृत साहब प्रगट हुए। काल का मानमर्दन किया।

अनेक जीवों को चेताया तथा अनेकों को सत्यलोक पहुंचाया। लेकिन निरंजन ने अपना हठ नहीं छोड़ा।

और त्रेतायुग में भी जीवों का संहार करता रहा। उलझाता रहा। और कष्ट देना शुरूकर दिया।

 जीवों का आर्तनाद सुनकर सतपुरुष मुनिन्द्रनाम साहब के रूप में त्रेतायुग में प्रगट हुए। स्मरण रहे सतपुरुष सतयुग में जब-जब भी प्रगट हुए।

तब ही सत्यसुकृत नाम साहब से प्रख्यात हुए। तथा त्रेतायुग में सत्यपुरुष (परमात्मा) जब-जब भी प्रगट हुए।

तब-तब ही मुनिन्द्रनाम साहब के नाम से प्रगट हुए। इसी तरह द्वापरयुग में करुणामयनाम साहब तथा कलियुग में सद्गुरु कबीर साहब के नाम से प्रगट होते हैं।

अस्तु! त्रेतायुग में मुनिन्द्रनाम साहब अनेकों बार जीवोध्दार निमित्त प्रगट हुए। और कालपुरुष का मानमर्दन किया।

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सत्यसुकृत साहब द्वारा खेमसरी का समुध्दर

सत्यसुकृत साहब द्वारा खेमसरी का समुध्दर :

खेमसरी ग्वालिन थी। और वह मथुरा में रहती थी। पशु चराना दूध बेचना तथा गोबर बुहारा उसका कर्म था।लेकिन ह्रदय में परमात्मा के  प्रति अटूट श्रध्दा थी।
उसका ह्रदय पवित्र था। सत्ययुग में खेमसरी ग्वालिन का प्रधान भाव जानकर ही तो सद्गुरु सत्यसुकृत साहब उसके पास पहुंचे।


ज्योकि औजस्ववान प्रकाशवान स्वत पुरुष सत्यसुकृत साहब (सद्गुरु कबीर साहब)के खेमसरी ने दर्शन किए। त्योही वह भाव विह्वल होकर चरणों में गिर गई। आंखों से स्नेह जल की वर्षा होने लगी।


और विनययुक्त होकर सद्गुरु से अपनी जीवन मुक्ति की याचना की। सद्गुरु उस दिन ग्वालिन पर बङे ही कृपालु हुए।


और उसके घर आँगन में सत्यलोक स्थापना कर उसे तथा उसके परिवार - परिजनों को मुक्त करने के लिए चौका आरती भी किये।


 इस चौका आरती में खेमसरी सहित चालिस जीवों ने सद्गुरु के हाथ से पान परवाना लिया। सद्गुरु कृपा से वे सभी मुक्त हो गए। 


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Saturday, August 11, 2018

सत्ययुग राजा धोंधल की सत्यसुकृत साहब से भेंट तथा राजा हारीत को शिक्षा

सत्ययुग राजा धोंधल की सत्यसुकृत साहब से भेंट तथा राजा हारीत को शिक्षा :


ब्रह्मा, विष्णु और शिव को उपदेश देते हुए। तथा अनेक जीवों को प्रबोधित करते हुए। सद्गुरु सत्यसुकृत साहब (कबीर साहब) राजा धोंधल के पास पहुंचे।
 तत्कालीन राजाओं मैं राजा धोंधल चक्रवर्ती पराक्रम पौरुषी तथा धर्मात्मा थे। साधु सन्तो का उनके दरबार में स्थान ऊंचा था। राजा धोंधल को श्वेत पुरुष प्रकाश पुन्ज स्वरुप सद्गुरु सत्यसुकृत साहब के दर्शन करते ही बङी प्रसन्नता हुई।शान्ति हुई।
तथा अपने आपको भाग्यवान समझा। राजा सद्गुरु के सामने विनय युक्त हो नतमस्तक होकर चरण पकड़ लिए। सद्गुरु भी राजा धोंधल पर कृपालु हुए।
और राजा की   अटूट श्रध्दा देखकर उपदेश दे दिया। राजा भी सद्गुरु का उपदेश सुनकर धन्य धन्य हो गये। राजा का भ्रम दूर हुआ।
 और उसे सद्गुरु से मुक्ति प्रसाद मिल गया। धोंधल राजा को उपदेश देने के बाद सद्गुरु राजा हारीत को उपदेश देकर लाभान्वित किया। हारीत भी सद्गुरु कृपा से धन्य -धन्य हुए।

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Friday, August 10, 2018

सतयुग में त्रिदेवों का पप्रबोध सत्यसुकृत रुप में साहेब द्वारा



सत्यसुकृत साहब द्वारा खेमसरी का समुध्दर


सतयुग में सतगुरु कबीर साहेब का नाम  सत्यसुकृत साहेब जीवौं के दुख को दूर करने के लिए सत्यलोक से पधारे ।
कालवंश ब्रह्मा भी माया जाल रचने में संलग्न थे । सत्यसुकृत साहेब ने ब्रह्मा जी से भेंट की और ब्रह्मा को सत्यलोक का भेद बताया तथा जीवन मुक्ति का परिचय दिया। लेकिन नरिजन ने अपनी गुप्त शक्ति से ब्रह्मा की बुद्धि  पलट दी।
 ब्रह्मा पूरी तरह से सद्गुरु साहेब के उपदेशों को ह्रदयगम नहीं कर सके । ब्रह्मा के बाद सद्गुरु सत्यसुकृत साहेब विष्णु के पास पहुंचे।
विष्णु को भी सदुपदेशों से प्रभावित करने की चेष्टा की लेकिन विष्णु तो पूरी तरह से मायावश थे। माया कि विष्णु पर अशिम कृपा से विष्णु त्रिलोक पूज्य थे, जिसके अभिमान से सद्गुरु के उपदेशों को गहण नहीं कर सके और पुनः माया वह काल के जाल में फंसे हुए पालन-पोषण में लगे रहे।
विष्णु के बाद सद्गुरु सत्यसुकृत साहेब (कबीर साहेब) शंकर जी के पास पहुंचे। शंकर जी ने स्वेतपुरुष का स्वागत किया।
 और दर्शन कर धन्य -धन्य हुए। और विनययुक्त होकर सद्गुरु से उपदेश माँगा।
वेसै शिवजी सीधे - सादे -भोले स्वाभव ही के थे।
सद्गुरु सत्यसुकृत साहब शिवजी के हाव -भाव से प्रसन्न होकर शिवजी को सत्य लोक का सारा हाल कहा दिया।
और जीव बन्धन का कारण तथा जीवन मुक्ति का स्पष्ट भेद बता दिया।
शंकर जी सद्गुरु की मुक्तिदायिनी निर्मल वाणी सुन कर गद् -गद् हो गए।
और श्रध्दाभाव से सद्गुरु को वन्दना की। इन्हीं शंकर जी की वन्दना के स्वरुप सौ श्लोक आज भी सामवेद के ब्रह्मयम खण्ड में विद्ममान है
जिन्हें कबीर एकोत्तरी भी कहते हैं।
पार्वती और शंकर जी के सम्वाद रुप में यह एकोत्तरी हैं। जिसका आज भी शैवोपासक शिव शंकरी सम्प्रदायी नाथपन्थी दसनाम गुसांई आदि शिव भक्त पाठ कहते हैं।
और कबीर साहब को अनादि पुरुष मानते हैं। तथा अपने कर्मकांड में कबीर साहब की वेदी स्थापित करते हैं। यहां तक कि साधना मंत्रों में सद्गुरु कबीर साहब की साक्षी भी देते हैं।


 जिससे वे सिध्द बनते हैं। नाथपन्थी तो श्री गोरखनाथ के साथ-साथ कबीर साहब को पुजते है। और कहते हैं कि -
.कबीर गोरख एक है, कोई मत जानो दोय। कबीर अखण्ड तप धाम के, गोरख दीपक लोय


इस तरह भगवान् शंकर जी को सद्गुरु कबीर की वाणी में लिन होते देखकर काल पुरुष (निरंजन)तथा माया को बङी चिंता हुई।
 ये काल माया बङे प्रपंची है इन्होंने शंकरजी को विष धारण करवा दिया। और त्रिलोक में प्रसिद्धि फैलाकर पुन:अपने जाल में फंसा दिया।
इनके बाद सद्गुरु सत्यसुकृत साहब ने अनेक जीवों को चेताया। और काल माया के फन्द से छुङाकर सत्यलोक पहुंचाया।
 राजा धोंधल/राजा हारीत /तथा मथुरा की खेमसरी ग्वालिन के नाम उल्लेखनीय है। जिनका वर्णन अगले अध्यायों में है । 

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साहेब जब ( सत्यलोक ) में सत्यसुकृत रुप में आये


                  

   



सत्यलोक से जिन्दा साहेब का आना और काल को हराना


सत्यसुकृत रुप में सतयुग के समय काल द्वारा त्रसित जिवो को कष्ट मुक्त करने के लिए ज्ञानी जी सतलोक से आए। 

 

आकर निरंजन (कालपुरुष)को प्रारंभ में ज्ञानी जी ने धैर्य से समझाने को चेष्ठी की लेकिन निरंजन मानने वाले कहां था।

 

वह अपने मोह तथा पराक्रम के स्वाभिमान वश ज्ञानी जी को खदेड़ देने की चेष्टा की और कहा कि _

जाओ ज्ञानी घर अपने, मानो वचन हमारा। तीन लोक मोहि पुरुष दिया, स्वर्ग पताल संसारा।

 

इतना कहकर अपना विराट रुप दिखा कर ज्ञानी जी से युद्ध करने के लिए कटिबद्ध हो गया। तब ज्ञानी जी ने उससे अधिक वृहद् रुप धारण कर उसे एक क्षण में धूमिल कर दिया।

 

होश आने पर निरंजन ने ज्ञानी जी के चरण पकड़ कर क्षामा मांगी। और कहा हे प्रभु आप जो आज्ञा देगें उसका मैं भविष्य में पुरी तरह पालन करुंगा।

 

दयालु ज्ञानी जी ने निरंजन को गिङगिङाते देख कर क्षामा कर दिया। और कहा जो जिव स्वेच्छा से सतलोक आना चाहे उन्हें तुम नहीं रोकोगे।

 

 तथा तुम्हारे आधीनस्थ रहनेवाले जीव को किंचित दु:ख नहीं देना है। निरंजन ने विनययुक्त होकर ज्ञानी जी की आज्ञा सिर माथे पर रखकर चरण पकड़ लिए।

 

 ज्ञानी जी साक्षात् सतपुरुष (परमात्मा) स्वरुप ही थे। जिन्हें सतयुग में सत्यसुकृत, सत्यनाम, जिन्दा, आदि अदली, अजर, अचींत, पुरुष, जोगजीत, आदि अनेक सत्य वचनो से पुकारा गया है।

 

ज्ञानी जी सतलोक चले जाने के बाद निरंजन ने कुछ समय तक तो अपने प्रतिज्ञा का पालन किया। परंतु फिर कुछ दिन बाद वही जाल रचकर जिवो को बन्धन में डालकर कष्ट देना शुरूकर दिया। 

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Wednesday, August 8, 2018

श्री सतगुरु कबीर साहब का जीवनचरित्र

           
  

 प्रकाशक

श्री सतगुरु कबीर साहेब धनी धर्मदास

बंश प्रतिनिधि सभा दामाखेङा जिला- बौलोदाबजार।

 

सत्पुरुष की सुषुप्त इच्छा के स्फुरण स्वरुप सोलाहसुत व इनके लोक

 

इस पिण्ड ब्रमान्ड की रचना से पहले सत्यपुरुष (परमात्मा) था आज भी है।

 तथा प्रलय के बाद भविष्य में भी रहेगा।

 

 आदी में सतपुरुष(परमात्मा) ही था सिवाय शुन्य के असंख्य वर्ग योजन के क्षेत्र में कुछ नहीं था।

 

 अगर थी भी तो केवल सत्यपुरुष (परमात्मा) आकर नाम की कोई चिन ही नहीं थी।

 

 सत्यपुरुष( परमात्मा) स्वयं निराकार सत्य स्वरुप में इस विशाल शुन्य में विद्ममान था।

 

 लेकिन इस सत्यपुरुष (परमात्मा) के अन्तरंग में इच्छा शक्ति जाग्रत थी।

 

 जिसके फलस्वरूप शब्द स्वरूप सोलह सुतो पुत्र का निर्माण हुआ।

 

यानि सत्यपुरुष ने ही शब्द स्वरुप निराकार सोलह (पुत्रो) की रचना की ओर इनके लिए सोलह शब्द लोको की भी स्थापना करके इन्हें क्रमशः अपने अपने लोक में प्रकाशित किया।

                                 जिनके नाम व लोक निम्नलिखित हैं।                   

              अंश या (सुत)                                              (लोक) अथवा द्वीप

 

     1) सहज अंश(सुत)                                                   मूल करी द्वीप(लोक)

 

     2 ) सुजन जन अंश (सुत)                                                 अग्रा द्वीप(लोक)

 

     3 ) भृीन्गमुनि अंश(सुत)                                              मंजुल करी द्वीप (लोक)

 

     4 ) पक्ष पालन अंश (सुत)                                                    पुहुप द्वीप (लोक)

     5 ) श्रवण लीला अंश (सुत)                                             जगमग द्वीप (लोक)

 

     6 ) सर्वग सुरत अंश (सुत)                                                अचींत द्वीप(लोक)

 

     7 ) भावनाम अंश (सुत)                                                 उदय द्वीप (लोक)

 

     8 ) प्रेम अंश अथवा (निरंजन काल अंश सुत)                         झांझरी द्वीप (लोक)

     9 ) कुर्म अंश (सुत)                                                          (सत्यलोक)

 

    10 ) सुरत सुभाव अंश (सुत)                                              ग्यान द्वीप (लोक)

 

    11 ) अष्टंगी अंश (सुत अथवा दुर्गा)                            मानसरोवर द्वीप मृत्यु (लोक)

 

    12 ) अक्षर सुभाव अंश (सुत)                                        पालंग द्वीप (लोक)

 

    13 ) संतोष सुजन अंश (सुत)                                            अक्षय द्वीप (लोक)

 

    14 ) कदल ब्रह्म अंश (सुत)                                            सुखसागर द्वीप (लोक)

 

    15 ) दया पालन अंश (सुत)                                             दि द्वीप (लोक)

 

    16 ) जलरंग अंश( सुत)                                            पाताल पांजी द्वीप(लोक)

            .   आठवें अंश निरंजन प्रेम (सुत) काल पुरुष की तपस्या का फल

सतपुरुष (परमात्मा) के सोलह अंशो में निरंजन का नाम उल्लेखनीय है। सतपुरुष (परमात्मा) की निरंजन ने घोर तपस्या की जिसने सतपुरुष ने निरंजन को तीन लोक का राज दिया।

 

इसके उपरांत भी काल पुरुष ने और अधिक सतपुरुष का ध्यान लगाया। निरंजन की बढ़ती हुई भक्ति तप और लगन से सतपुरुष (परमात्मा) बडा प्रभावित हुआ।

 

 सतपुरुष ने अपने प्रभाव से निरंजन में मोह उत्पन्न कर माया को प्रगट किया। जिसको अष्टांगी आधा तथा भवानी भी कहते हैं। मोह वश निरंजन का माया से स्त्री पुरुष जैसे सम्बन्ध हो गया।

 

 जिसके फल: स्वरुप ब्रह्मा, विष्णु , और शिव ये तीन शक्ति शाली पुत्र उत्पन्न हुए। अपने तपस्या के फलस्वरूप सत्यपुरुष (परमात्मा) से निरंजन को सृष्टि रचने के साज भी मिल गए थे।

 

निरंजन( कालपुरुष) ने ब्रह्मा को रचना का, विष्णु को पालन का, व शिव को संहार का साज देकर तथा माया को ही सर्वेसर्वा ठहरा कर तथा साकार रूप में तीन लोक रचकर एवं ताना बाना डालकर स्वयं अपने लोक झांझरी द्वीप में निवास किया।

 

 इस समय ब्रह्मा, विष्णु, और शिव की शैशवावस्था थी। निरंजन ने माया को वचन बध्द किया कि तुम मेरा पता मेरे पुत्रों को मत बताना।

 

जब ब्रह्मा विष्णु और शिव सयाने हुए तब माया (माता) से अपने पिता का पता पुछा तब माया(माता) ने अपने पुत्रों क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु , व महेश से कहा।

 

 कि हे प्रिय पुत्रों!मै ही यदि अनादि जोग माया हुँ। सर्वेसर्वा हुँ। मेरे ऊपर कोई नहीं है। मैं ही सब रचना करती हूं। बिगाड़ती हुँ। इस प्रकार त्रिदेव पिता से वंचित रहे।

 

इतना होने पर निरंजन ने गायत्री की उत्पत्ति की और चार वेदों का उससे अपने प्रभाव से निर्माण करवाया और उन वेदों को समुद्र में छिपा दिया।

 

इधर माया ने तीन पुत्रियाँ क्रमशः शारदा, श्री तथा सती को उत्पन्न कर अपने पति निरंजन के संकेत से इन तीनों पुत्रियों को भी समुद्र में छिपाकर अपने पुत्रों (त्रिदेव)को समुद्र मंथन की आज्ञा दे दी।

 

ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सुरों असुरों के सहयोग से समुद्र मंथन कर वेद व इन तीनों कन्याओं क्रमशः शारदा(सरस्वती),(लक्ष्मी) तथा सत्तो (पार्वती) को ढूंढ निकाला साथ में कई और रत्न भी प्राप्त हुये।

 

सभी सामग्री को माया के सनमुख लाकर धर दिया। माया(माता) ने शारदा ब्रह्मा को, लक्ष्मी विष्णु को, तथा पार्वती शंकर को दे दी।

 

और चार वेद सिर्फ ब्रह्मा को बख्शीश किए। शेष जो मुक्ति का सूक्ष्म वेद जो सत्य पुरुष (परमात्मा) का उपदेश स्वरूप निरंजन को दिया गया था।

 

उसे निरंजन (कालपुरुष) ने छिपा लिया। निरंजन मोहवश तथा पराक्रम वश स्वाभिमानी हुआ और मन माना जाल रच -रच कर आपना प्रभाव जमा लिया।

 

ब्रह्मा विष्णु और शिव का इन तीनों कन्याओं से सम्बंध जुड़ जाने पर ये भी माया विषयासक्त हो गए और जिव जगत का विस्तार हो गया।

 

निरंजन और माया का अन्तदंशन से सम्बंध जुड़ा रहा। चार खानि चौरासी योनियों ताना बाना पुरा हुआ और तीनों लोक आबाद हुए इस संबंध में सतगुरु कबीर साहब कहते हैं कि _

अक्षय वृक्ष वह पुरुष हैं,                            निरंजन  वाकी डार।

 त्रिवेदी शाखा भये,                                      पत्ता हुआ संसार 

 

निरंजन ने फिर तो अपने जाल में जिव को फंसा लिया। और बहुत कष्ट देने लगा। सतपुरुष(परमात्मा) तक पहुंचने के सारे के सारे दरवाजे बंद कर दिये।

 

जीव अत्यंत दु:खी हुए। उनकी आर्तनाद सतपुरुष तक पहुंची। क्योंकि जीव भी तो सतपुरुष (परमात्मा) के आंश हैं। ये जीव सतपुरुष द्वारा काल को दी हुई है। जीव छटपटाने लगे।

 

.जिवहि दु:खी दुसह त्रित त्रिह बिलखंत।।

 

    इन जीवों को आर्तनाद को सुनकर सतपुरुष को बङा चिंता हुई। सतपुरुष (परमात्मा) ने अपने ही स्वरूप में सर्वप्रथम जिन्दासाहब को जिन्हें ग्यानी जी।

 

भी कहते हैं। उनको निरंजन के प्रबोध देने भेजा। ये जिन्दा साहब ही सतगुरु कबीर साहब हैं। चारों युगों में लगातार आप सत्यपुरुष स्वरुप में काल का मानमर्दन करने तथा जिव को चेताने के लिए पधारते है।?

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