कलियुग प्रारम्भ
कलियुग प्रारम्भ सद्गुरु कबीर साहब द्वारा जगन्नाथ जी की मंदिर की स्थापना व इन्द्रदमन को प्रबोधित किया
निरंजन (कालपुरुष) ने अपने तप तथा भक्ति के बल से द्वापरयुग के बाद जगन्नाथ पुरी ठाकुर जी (श्री कृष्ण जी) का मन्दिर बनवाने का कौल कर लिया था।
भगवान् श्रीकृष्ण जी की समाधि जगन्नाथ पुरी में ही स्थापित हुई। जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में है। उस समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था।
उसको स्वप्न में ठाकुर जी ने अपना मंदिर बनवाने की आज्ञा दी। राजा इन्द्रदमन ठाकुर जी के परम उपासक थे।
उन्होंने स्वप्न में हुए ठाकुर जी के आदेश की पालन करते हुए समुद्र के किनारे जगन्नाथ जी का मन्दिर बनवाना शुरू कर दिया।
उधर समुद्र और ठाकुर जी(श्री रामचन्द्रजी) का त्रेतायुग का बैर था। क्योंकि भगवान् श्रीराम जी ने समुद्र से जबरदस्ती कर सतरेखा के बल प्रताप से सेतुबन्ध(पुल)बना कर लंका पर विजय कर ली थी।
इस का रुप ज्योहि राजा इन्द्रदमन जगन्नाथ जी (विष्णु भगवान्) का मंदिर बनकर पुरा करता था। कि समुद्र उसे क्षतिग्रस्त बरबाद कर देता था । इस प्रकार की बर्बादी जगन्नाथ जी का मन्दिर तीन हो गई।
आखिर राजा इन्द्रदमन ने मंदिर बनवाना बन्द ही कर दिय।राजा इन्द्रदमन बिलकुल निराश हो गया और मन ही मन को प्रभु को याद करने लगे।
राजा इन्द्रदमन दिन रात चिन्तित होकर सोचने लगे ऐसा। क्या समुद्र है जो ठाकुर (विष्णु जी) से भी बढ़कर है।
क्या कोई इस ब्रम्हांड में भी सामथ्र्यवान शक्ति है। जो समुद्र का मानमर्दन कर सके।
राजा की ऐसी आर्तनाद सुनकर सत्यपुरुष स्वरुप सदगुरु कबीर साहब राजा इंद्रदमन के सामने प्रकट हो गए। राजा को प्रकाश पुज्ज स्वरूप श्वेत पुरुष साधु वेश में प्रथम बार के दर्शन हुए थे। राजा की आंखें चकाचौंध हो गई फिर भी राजा इंद्र दमन सद्गुरु के स्वरूप को निरखता ही रहा और सर्वोंपरि समर्थ जानकर तुरंत चरणों में गिर पड़ा।
और अपना प्रण पूरा करने की सतगुरु से याचना की। तथा अपने कल्याणर्थ प्रार्थनीय प्रस्तुत हुआ। सदगुरु कबीर साहब को अपना पूर्व कौल करार भी पूरा करना था। जो निरंजन ने कलयुग में जगन्नाथ जी का मंदिर समुद्र हटाकर बनाने का वचनन सतगुरु से ले लिया था तथा इधर इंद्रमन की श्रद्धा तथा लगन भी को पूर्ण करना था। तब सदगुरु कबीर साहब ने राजा इंद्र मन से कहा कि हे राजन तुम जगन्नाथ जी का मंदिर बनवाओ। में समुद्र को रोकूंगा। आखिर राजा ने ठाकुर जी का मंदिर बनवा दिया। जब सागर ने उस मंदिर को पूर्ण बना देगा तो उसे नष्ट भ्रष्ट करने के लिए लहरें उठाता हुआ चला।
आगे क्या देखता है कि सदगुरु कबीर साहब मंदिर के चौरे पर विराजमान हैं उनको देखते ही वह शांत हो गया और विप्र रूप धारण कर सतगुरु के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा है। स्वामी त्रेता युग का मेरा जगन्नाथ जी (रामचंद्र जी) से बैर है। उस समय आपकी सत्यनाम रेखा से मैं लाचार हुआ था। तब कबीर साहब ने कहा कि मैं भी निरंजन को वचन दे चुका हूं कि तेरा जगन्नाथ जी का मंदिर समुद्र को हटाकर बनवा दूंगा। इसलिए हे सागर आप ऐसा करिए इस जगन्नाथ जी के मंदिर को कायम रहने दीजिए।
इसके बदले में तुम्हें द्वारिकापुरी सौंपता हूं आप अपना बदला लेते रहें। समुद्र गुनाह विनय युक्त होता हुआ चल दिया और उसकी द्वारिका के स्वर्ण मंदिर को डूबा दिया तथा अपने पूर्व का बदला ले लिया ।
इसके पश्चात राजा इंद्रदमन को सदगुरु कबीर साहब ने जीवंती का सारा भेद बता दिया। पूणं शिक्षा दीक्षा देते हुए परिवार समय उसको मुक्त कर दिया। इंद्र दमन में सारी करामात साहब की देख ली जिस समय विप्र रूप धारण करके समुद्र आया तब से लेकर पीछे हटा तब तक की लीला देखकर राजा आश्चर्यन्वित हुआ।
सदगुरु कबीर साहब जीवों का उद्धार करने के लिए चौदह बार प्रगट हुए।
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