सत्यलोक से जिन्दा साहेब का आना और काल को हराना
सत्यसुकृत रुप में सतयुग के समय काल द्वारा त्रसित जिवो को कष्ट मुक्त करने के लिए ज्ञानी जी सतलोक से आए।
आकर निरंजन (कालपुरुष)को प्रारंभ में ज्ञानी जी ने धैर्य से समझाने को चेष्ठी की लेकिन निरंजन मानने वाले कहां था।
वह अपने मोह तथा पराक्रम के स्वाभिमान वश ज्ञानी जी को खदेड़ देने की चेष्टा की और कहा कि _
जाओ ज्ञानी घर अपने, मानो वचन हमारा। तीन लोक मोहि पुरुष दिया, स्वर्ग पताल संसारा।
इतना कहकर अपना विराट रुप दिखा कर ज्ञानी जी से युद्ध करने के लिए कटिबद्ध हो गया। तब ज्ञानी जी ने उससे अधिक वृहद् रुप धारण कर उसे एक क्षण में धूमिल कर दिया।
होश आने पर निरंजन ने ज्ञानी जी के चरण पकड़ कर क्षामा मांगी। और कहा हे प्रभु आप जो आज्ञा देगें उसका मैं भविष्य में पुरी तरह पालन करुंगा।
दयालु ज्ञानी जी ने निरंजन को गिङगिङाते देख कर क्षामा कर दिया। और कहा जो जिव स्वेच्छा से सतलोक आना चाहे उन्हें तुम नहीं रोकोगे।
तथा तुम्हारे आधीनस्थ रहनेवाले जीव को किंचित दु:ख नहीं देना है। निरंजन ने विनययुक्त होकर ज्ञानी जी की आज्ञा सिर माथे पर रखकर चरण पकड़ लिए।
ज्ञानी जी साक्षात् सतपुरुष (परमात्मा) स्वरुप ही थे। जिन्हें सतयुग में सत्यसुकृत, सत्यनाम, जिन्दा, आदि अदली, अजर, अचींत, पुरुष, जोगजीत, आदि अनेक सत्य वचनो से पुकारा गया है।
ज्ञानी जी सतलोक चले जाने के बाद निरंजन ने कुछ समय तक तो अपने प्रतिज्ञा का पालन किया। परंतु फिर कुछ दिन बाद वही जाल रचकर जिवो को बन्धन में डालकर कष्ट देना शुरूकर दिया।
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